Jan 1, 2009

क्यू सता रही हो यार तुम..

आज शाम फिर वही गुज़ारी
जहा मैं किताब पढ़ता रहता
और तुम्हारी गोद में
सर मेरा रखा होता था..

तुम तिनका डालकर कानो
में मेरे सताती थी
मेरे हाथ में तुम्हारा
हाथ रखा होता था...

दोनो देखते रहते आसमान
से गिरते हुए सूरज को
अंधेरा जल भुन कर माथे
पर आ चुका होता था

उठकर चल देते थे हम
हाथो में हाथ लिए
तुम्हारा सर मेरे
काँधे पर होता था

हर बार पार्किंग का टोकन
खो देता था जेब से अपनी
और तुम्हारे पर्स में
ना जाने कहा से वो होता था

गरम गरम दूध जलेबी
गेन्दामल हलवाई की
दोनो मिट्टी के सिकोरो
में एक साथ खाते थे हम

ख़ाली सड़को पे बातें
करते हुए चलते रहते
एक दूजे का हाथ थामे
भूल जाते सब ग़म

चूड़ीवाले को देखते ही
तुम्हारी ज़िद शुरू हो जाती
और मुआ चूडी वाला भी
तुम्हे देखते ही वहा आ जाता था

तुम भागकर सड़क पार करती थी
ओर मैं तुम पर चिल्लाता था..
घबरा कर तुम्हारे पास आता
क्या यार नीना साँसे निकाल देती हो!

इक रोज़ फिर ऐसे ही तुम्हारा
सड़क को पार करना हुआ था
मैं तब दूसरे छोर पे था
तबसे तुम उस ओर चली गयी

आज शाम फिर वही गुज़ारी
सुखी टहनियो के नीचे..
मगर मेरे हाथो में कोई
किताब नही होती है..

तिनके बिखरे हुए है
अब भी यहाँ वहाँ..
हवाएं आकर इन्हे
उड़ा ले जाती है..

अकेला चलता हू मेरे
काँधे झुके से है थोड़े...
सामने से साथ आता हुआ
कोई जोड़ा दिख जाता है..

तुमसे पार्किंग का कूपन
माँगने से पहले ही
जेब में पार्किंग का
कूपन मिल जाता है

इक रोज़ चूड़ी वाले ने पूछा था बस!
अब वो भी नही आता है
तुम्हारे लिए चूड़िया ख़रीद लू
पर तुम अब ज़िद ही नही करती

हलवाई के यहा जाता हू
भीड़ में शायद वो
देख नही पाता..
दो सिकोरे मेरी ओर बढ़ाता है

कब तक तुम्हे साथ लेकर
चलता रहूँगा मैं..
मुझसे अब ये नही होता है
होंठो को मुस्कुराहट देने
वाला दिल अकेले में बहुत रोता है...

http://kushkikalam.blogspot.com/ 
से उधृत  

1 comment:

  1. अच्छी कविता है।

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